अब 21 नहीं 33 वर्ष की उम्र तक मिलेगा रेलकर्मियों के बच्चों को प्रिविलेज पास

रेलवे मंत्रालय ने अपने
कर्मचारियों के बेटों को
33 साल तक की उम्र तक
रेलवे प्रिविलेज पास देने का
फैसला लिया है। इससे पहले
रेलकर्मियों के बेटों को रेलवे
पास निर्गत करने के लिए उम्र
सीमा 21 वर्ष निर्धारित थी। जब
कि बेटियों को शादी ना होने
अथवा माता-पिता पर निर्भर
होने तक यह सुविधा मिलती
है। मिली जानकारी के मुताबिक
रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्वनी
लोहानी के आदेश के बाद सभी
रेलवे जोन के रेल महाप्रबंधक
एवं सभी रेल मंडल के
डीआरएम तक को निर्देश जारी
कर दिया गया है।
रेलवे ने करीब 22 साल बाद इस नियम में संशोधन करते
हुए यह फैसला लिया है कि रेलकर्मियों के बेटों को 35
साल उम्र तक रेलवे पास दी जाएगी। रेलवे बोर्ड का तर्क
है कि रेल कर्मियों के बेटे को नौकरी के इंटरव्यू अथवा
लिखित परीक्षा के लिए अन्य शहरों में जाने के लिए रेलवे
पास के लिए उम्र सीमा पार कर जाने के बाद उन्हें काफी
परेशानियों का सामना करना पड़ता था। 21 वर्ष की उम्र
पार कर जाने के बाद विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षा अथवा
साक्षात्कार के दौरान रेल टिकट लेकर सफर करना
पड़ता था। इसको लेकर रेल कर्मचारियों द्वारा लंबे समय
से मांग उठाई जा रही थी। भारतीय मजदूर संघ के केंद्रीय
कोषाध्यक्ष भानु प्रताप पाठक एवं पूर्वी रेलवे कर्मचारी
संघ के संगठन सचिव ने कहा कि रेलवे बोर्ड द्वारा लिया
गया फैसला रेल कर्मियों के हितों से जुड़ा हुआ है। इससे
रेलकर्मियों को बड़ी राहत मिलेगी। उनका संगठन लगातार
इन मांगों को उठा रहे थे। केंद्र सरकार द्वारा रेल कर्मियों
से जुड़े कई अन्य मांगो पर भी विचार कर रहा है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर मुगलसराय सिक्ख समाज संगत और चढ़दीकला कार सेवा संस्था द्वारा सिक्ख धर्म के संस्थापक पहले गुरु नानक देव जी महाराज के 555 वे प्रकाश पर्व के उपलक्ष में उनके दिखाये रास्तों पर चलने का प्रयास करते हुए जरूरतमंद लोगों की बस्तियों में जाकर आने वाली सर्दी से बचाव के लिए वहां के बच्चों को नए गर्म कपड़े बांटने की सेवा की गई

मानवाधिकार न्यूज़ की ओर से मज़दूरों को समर्पित एक अपील
“फिर से चाहिए 8 घंटे का अधिकार –
मज़दूर न किसी का ग़ुलाम है, न कोई व्यापार!”

आज 1 मई – अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस है। यह वह दिन है जब पूरी दुनिया उन मेहनतकश हाथों को सलाम करती है, जिन्होंने अपने खून-पसीने से दुनिया का निर्माण किया है।
लेकिन आज एक बार फिर वही सवाल खड़ा है –
क्या हमारे मज़दूरों को वह सम्मान, वह अधिकार मिल पा रहे हैं जिसके लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी थी?

1886 में अमेरिका के शिकागो में जब मज़दूरों ने 8 घंटे की शिफ्ट के लिए अपनी जानें दीं, तब जाकर यह अधिकार मिला।
मगर आज फिर वही मज़दूर 12 से 18 घंटे काम करने को विवश है –
कम मज़दूरी, ज़्यादा काम, और सम्मान शून्य।

मानवाधिकार न्यूज़ की ओर से हम यह स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं:

8 घंटे का काम मज़दूर का हक़ है, एहसान नहीं।

हर श्रमिक को सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, और काम का सुरक्षित वातावरण मिलना चाहिए।

मज़दूर को कोई ठेके का सामान न समझें – वह भी एक इंसान है, जिसके सपने हैं, परिवार है, और जीने का हक़ है।


आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है –
मज़दूरों की आवाज़ को फिर से बुलंद करना।
उनके हक़ के लिए एकजुट होना।

हमारा संकल्प:
“रोटी भी चाहिए, इज़्ज़त भी चाहिए,
इंसान हैं हम – गुलाम नहीं!”

आपका
संजय रस्तोगी
राष्ट्रीय अध्यक्ष – मानवाधिकार न्यूज़

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